मोदी सरकार ने संसद को किया गुमराह, कहा- चुनाव आयोग ने इलेक्टोरल बॉन्ड पर चिंता जाहिर नहीं की

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नई दिल्ली: बीते 18 दिसंबर को राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में वित्त मंत्रालय के व्यय विभाग ने कहा कि चुनाव आयोग ने इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर कोई चिंता नहीं जताई थी.

हालांकि पारदर्शिता के मुद्दे पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं ने कहा कि चुनाव आयोग ने इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर चिंता जाहिर करते हुए सरकार को पत्र लिखा था. इनका कहना है कि सरकार ने संसद को गुमराह किया है.

सांसद मोहम्मद नदीमुल हक ने इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर राज्यसभा में सवाल पूछा था. इस पर वित्त मंत्रालय में राज्य मंत्री पी. राधाकृष्णन ने बताया कि नवंबर 2018 तक कुल 1056.73 करोड़ रुपये का इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदा गया है और इसमें से 1,045.53 करोड़ रुपये राजनीतिक पार्टियों के पास गए हैं.

इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर यह विवाद जारी है कि इसकी वजह से राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे की गोपनीयता और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा. इसे लेकर पूछा गया था कि जब इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था लागू की जा रही थी तो क्या चुनाव आयोग ने इसे लेकर चिंता जाहिर की थी.

इस पर वित्त राज्य मंत्री ने कहा कि चुनाव आयोग ने इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर कोई चिंता नहीं जताई थी. हालांकि कोमोडोर (रिटायर्ड) लोकेश के. बत्रा का दावा है कि उनके पास वो दस्तावेज हैं जिससे ये पता चलता है कि चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर इस पर अपनी चिंता जाहिर की थी.

चुनाव आयोग ने मई, 2017 में  पत्र लिखा था

द वायर ने इस मामले को लेकर रिपोर्ट किया था कि चुनाव आयोग ने बीते 26 मई 2017 को कानून मंत्रालय के सचिव को पत्र लिखकर अपनी चिंता जाहिर की थी. चुनाव आयोग के चुनाव खर्च विभाग के निदेशक विक्रम बत्रा ने ये पत्र लिखा था. आयोग ने पुणे के एक शख्स विहार धुर्वे द्वारा दायर किए गए सूचना का अधिकार आवेदन के तहत ये जानकारी दिया था.

साल 2017 के बजट में मोदी सरकार द्वारा राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग को लेकर प्रस्तावित एक्शन प्लान पर प्रतिक्रिया देते हुए चुनाव आयोग ने लिखा कि इनकम टैक्स एक्ट, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 और कंपनी एक्ट 2013 में संशोधन करने से पारदर्शिता पर काफी प्रभाव पड़ेगा.

आयोग ने लिखा, ‘इससे राजनीतिक वित्त और राजनीतिक दलों की फंडिंग के पारदर्शिता पहलू पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा.’

इस पत्र में चुनाव आयोग ने ये भी लिखा था कि कानूनों में संशोधन करने से राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे की पारदर्शिता पर गहरा प्रभाव पड़ेगा. प्रस्तावित संशोधन से केवल पार्टियों को चंदा देने के लिए कागजी कंपनियों (शेल कंपनी) के पनपने का रास्ता खुल सकता है. अगर कंपनियों को ये छूट दे दी जाएगी कि उन्हें पार्टियों को दी जाने वाली चंदे के बारे में जानकारी नहीं देनी है तो इससे पारदर्शिता पर काफी बुरा प्रभाव पड़ेगा.

लोकेश बत्रा द्वारा प्राप्त किए गए दस्तावेज ये दर्शाते हैं कि तीन जुलाई, 2017 को कानून एवं न्याय मंत्रालय ने चुनाव आयोग की आपत्तियों को लेकर आर्थिक कार्य विभाग को एक ज्ञापन भेजा था.

कानून मंत्रालय के विधायी विभाग ने लिखा, ‘चुनाव आयोग ने कहा है कि राजनीतिक दलों को दी जाने वाली चंदे की सीमा खत्म करने पर कागजी कंपनियों के खुलने की संभावना बढ़ जाएगी जिसका केवल राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने का काम होगा.’

आरोप है कि इलेक्टोरल बॉन्ड की वजह से राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे को लेकर गोपनीयता और बढ़ जाएगी. इसे लेकर चुनाव सुधार पर काम करने वाली गैर सरकारी संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है.

कानून मंत्रालय ने वित्त मंत्रालय के व्यय विभाग को एक नहीं बल्कि तीन पत्र लिखा था लेकिन वित्त मंत्रालय ने एक भी पत्र का जवाब नहीं दिया. वहीं वित्त मंत्रालय के वित्तीय क्षेत्र सुधार और विधान मंडल ने चुनाव आयोग के विचारों से सहमति जताई थी कि नया कानून सही नहीं है और इसे वापस लिया जाना चाहिए.

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