Delhi Smog: जहरीली हवा के लिए सिर्फ किसानों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता !

सर्दियों का आगाज और दिल्ली- एनसीआर में लौट आया ‘द ग्रेट स्मॉग’. हर साल इस दौरान, वायु प्रदूषण उन स्तरों तक पहुंचता है जो दुनिया के अधिकांश हिस्सों में कल्पना से परे है. वायु प्रदूषण के मामले में पिछले दो साल सबसे खराब थे. पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण प्राधिकरण (ईपीसीए) ने दावा किया है कि वर्ष 2016 का स्मॉग लंदन के 1952 के द ग्रेट रूमॉग से भी ज्यादा बदतर था. बुधवार को दिल्ली की कुल वायु गुणवत्ता (एक्यूआई) 328 पर दर्ज की गई, जो केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के आंकड़ों के मुताबिक, ‘बहुत खराब’ श्रेणी में आती है. साथ ही इस बात की भी चेतावनी दे दी गई है कि कि अगले कुछ दिनों में यह और भी खराब हो सकती है.

आस पास के राज्यों पंजाब और हरियाणा में अक्टूबर-नवंबर के महीनों के दौरान जलाई जाने वाली पराली इस वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण है. पराली के जलने से उठने वाला धुंआ-धुंध के साथ मिलकर दिल्ली की सर्दियों को हर साल जहरीला बनाता है और अब ये एक ट्रेंड बन चुका है. अक्टूबर-नवंबर का वक्त खरीफ फसल का अंत होता है, जब धान की फसल की कटाई की जाती है, साथ ही ये वक्त है रबी फसल की बुआई का जब आलू और गेंहू लगाई जाती है. नासा सैटेलाइट इमेजरी द्वारा जारी किए गए चित्रों में हरियाणा और पंजाब में आग जलने के अनगिनत स्पॉट दिखने लगे हैं.

हालांकि ये समस्या अकेले पराली जलने के कारण नहीं है, इसके कई पहलू हैं. जैसे-जैसे सर्दी बढ़ती है, वो औद्योगिक प्रदूषण, गाड़ियों से निकलने वाला धुंआ, कंस्ट्रक्शन साइट्स की धूल के साथ मिलकर हानिकारक हवा को जन्म देती है. ये हवा नियमित रूप से वर्ल्ड हेल्थ आॅगनाइजेशन की सीमा से 30 गुना अधिक है.

‘द ग्रेट स्मॉग ऑफ इंडिया’ के लेखक सिद्धार्थ सिंह का कहना है कि, ‘पिछले साल वायु प्रदूषण में पराली का कितना योगदान था ये निर्भर करता है अलग-अलग हफ्तों में किए गए अध्ययनों पर, लेकिन वो औसत 10 से 50 प्रतिशत के बीच था. इस प्रदूषण के लिए अर्थवयवस्था के किसी भी एक क्षेत्र को पूरी तरह जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता और इससे निजात पाने का एकमात्र तरीका ये है कि ये सारे क्षेत्र एक दूसरे के साथ मिलकर इस पर काम करें.’

सुप्रीम कोर्ट की पर्यावरण प्रदूषण (रोकथाम और नियंत्रण) प्राधिकरण की सदस्य अनुमिता रॉय चौधरी का कहना है कि,’फसल जलना शुरू हो गया है और अक्टूबर अंत और नवंबर की शुरूआत में ये और बढ़ेगा. सरकार ने पराली जलाने की समस्या को कम करने के लिए बेशक कदम उठाए हैं लेकिन इस समस्या से पूरी तरीके से खत्म करने के लिए बहुत कुछ करना बाकी है. हालांकि ये पूरी तरह से रूक पाएगा इस पर मुझे संदेह है.’

पंजाब और हरियाणा दोनों ही सरकारों ने पराली जलने से रोकने के लिए कई कदम उठाए हैं. हरियाणा सरकार ने नई योजना, Promotion of Agricultural Mechanization for In-Situ Management of Crop Residue in the States के तहत राज्य में 900 सीएचसी (कस्टम हाइरिंग केंद्र) का प्रस्ताव दिया है, जिसमें 120 करनाल और 112 कैथल में प्रस्तावित हैं. समझने के लिए सीएचसी मशीन बैंक है, जो किसानों को उचित दामों पर उपकरण प्रदान करने के लिए बनाया गया है. इस सब के बावजूद क्यों किसान पूरी तरह से पराली को जलाना नहीं रोक सकते उसके कई कारण हैं.

पहला और मुख्य कारण है समय-सीमा. धान की फसल की कटाई और अगली फसल की बुआई के बीच केवल 20 से 25 दिन का समय होता है. खेतों से धान की कटाई के बाद उसे अगली फसल के लिए तैयार करने के लिए सिर्फ इतना ही समय मिलता है.

दूसरा, हालांकि सरकार स्ट्रॉ प्रबंधन मशीनों पर पर्याप्त सब्सिडी दे रही है लेकिन इसके बावजूद किसान इन मशीनों को इस्तेमाल करने के लिए अनिच्छुक है. इसकी अहम वजह है इन मशीनों की कीमत. अगर किसान इन मशीनों को किराए पर भी लेते है तो उन्हें इसके लिए 5,800 से 6,000 प्रति एकड़ का खर्चा उठाना पड़ेगा. भारतीय किसान यूनियन के मेहताब कदान कहते है कि किसानों का मानना है कि सरकार धान जलाने पर 2,500 रूपए का जुर्माना लगाती है तो फिर वो 6,000 रूपए क्यों खर्च करें? और ये जुर्माना भी उन्हें हमेशा नहीं देना पड़ता क्योंकि जब कभी कोई अधिकारी ये जुर्माना लेने के लिए आता है तो कई किसान इसका विरोध करने के लिए इकट्ठा हो जाते हैं.

करनाल के कच्छवा गांव के एक किसान जगदीश घाई जो की एक सीएचसी के मालिक भी हैं कहते है कि, इस एक सीएचसी को स्थापित करने के लिए उन पर और अन्य आठ किसानों पर 53 लाख का खर्चा आया है. जगदीश को सब्सिडी का पहला हिस्सा मिल चुका है लेकिन वे इस बात से चिंतित है कि वो सीएचसी स्थापित करने के लिए खर्च की गई राशि का आधी भी वसूल पाएंगे या नहीं.

घाई कहते है कि,”कच्छवा गांव को किसानी भाषा में ‘बाओनी’ भी कहा जाता है क्योंकि ये 52,000 एकड़ का गांव है. अब ऐसे में एक सीएचसी पूरे गांव की मांग को पूरा करने में सक्षम कैसे होगी जब एक मशीन केवल एक दिन में 10 एकड़ भूमि पर काम कर सकती है? हम किसान समझते हैं कि पराली जलने से हवा कितनी प्रभावित होती है लेकिन हमारे पास क्या विकल्प है? सरकार पहले हमें एक उचित विकल्प प्रदान करें और फिर हमसे कुछ उम्मीद करें.  लगभग 10 साल पहले, हम गेहूं के भूसे को भी जलाते थे लेकिन सरकार ने हमें उसे चारे में बदलने के लिए एक प्रभावी तंत्र दिया. आज हम उस चारे को बेचकर कमा रहे हैं. इसी तरह, सरकार हमें पराली ना जलाने का भी एक सक्षम विकल्प दें और हम इसे जलाना बंद कर देंगे.

अनुमिता का मानना है कि इन सीएचसी को पंचायत स्तर पर संचालित किया जाना चाहिए ताकि हर किसान इसका उपयोग कर सकें.

अपने घरों में बैठकर इस कड़वी हवा के लिए किसान की आलोचना करना आसान है जबकि हम ये भूल जाते है कि ये हवा किसानों के लिए भी उतनी ही जहरीली है. दरअसल हम इस बात को नहीं समझ पाते कि किसान के पास भी इसका विकल्प नहीं हैं.

कदान कहते है कि,’ज्यादातार किसान सीमांत किसान है ऐसे में वो इन महंगी मशीनों को कैसे खराद पाएंगे. साथ ही इन मशीनों को चलाने के लिए कम से कम 70-75 हार्सपावर के ट्रैक्टर की आवश्यकता होती है जिसकी कीमत लगभग 10 लाख रूपए है. पिछले कुछ सालों में चाहें सोने की कीमत हो, या फिर सरकारी कर्मचारियों का वेतन यहां तक की नरेगा मजूदर की मजदूरी सब कुछ बढ़ गया, जो नहीं बढ़ा वो है एक किसान की आय. पराली जलने से मिट्टी की प्रजनन शक्ति भी कुछ हद तक कम होती है लेकिन पराली जलाना किसान की मजबूरी है. धान की फसल अवशेष को हटाने के कार्य में एक नहीं बल्कि कई मशीनों की आवश्यकता होती है. लेकिन किसान इन मशीनों पर एक बड़ी मात्रा खर्च क्यों करेगा जब उसे साल में इन मशीनों की जरूरत केवल एक बार होती है?’

धान फसल अवशेष को हटाने की प्रक्रिया में कई मशीनें शामिल हैं, जैसे कि मलचर, रिवर्सिबल प्लो, डिस्क हैरो और हैप्पी सिडर.

इसी गांव के एक और किसान पंकज भाटिया सुपर एसएमएस (स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम) से खुश हैं और उन्हें इस साल फसल अवशेष को जलाना नहीं पड़ा. हालांकि वो बताते है कि,’ गांव में अभी भी पराली जलाई जा रही है और इसे पूरी तरह से रोकने में अभी काफी समय लगेगा. जिन किसानों के पास ये मशीने है भी वो भी केवल 50 प्रतिशत पराली को इस तरह से मिट्टी में मिलाने में सक्षम होंगे और शेष 50 के लिए उन्हें अभी भी पुराने तरीकों पर निर्भर करना होगा’

भारतीय किसान यूनियन(हरियाणा) के प्रदेश अध्यक्ष रतन मान का कहना कि सरकार को किसानों को अन्य फसलों कि बुआई के लिए प्रेरित करना चाहिए और इसके लिए सरकार को’ज्वार’,’बाजरा’ जैसी अन्य फसलों पर एमएसपी बढ़ाने की जरूरत है. किसान का धान की तरफ झुकाव सिर्फ उसके एमएसपी की वजह से है क्योंकि उसे मालूम है कि ये निश्चित रूप से एक सालाना इंकम देगा. धान लगाकर किसान सुनिश्चित हो जाता है कि उसकी इतनी रकम तय है.

सेंट्रल प्लयूशन कंट्रोल बोर्ड के अधिकारियों ने आनंद विहार, मुंडाका, नरेला, द्वारका सेक्टर -8, नेहरू नगर और रोहिणी की पहचान सबसे ज्यादा प्रभावित क्षेत्रों के रूप में की है. साथ ही इस बात की चेतावनी भी दी है कि हवा की गुणवत्ता इन इलाकों में गंभीर स्तर पर पहुंचने में ज्यादा वक्त नहीं लेगी. एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई) के मुताबिक से 0 और 50 के बीच हवा को अच्छा माना जाता है,51 से 100 के बीच संतोषजनक, 101 से 200 मध्यम, 201 से 300 खराब, 301 से 400 बहुत खराब, और 401 से 500 गंभीर.

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इस जहरीली हवा से निपटने के लिए 15 अक्टूबर से इमरजेंसी प्लेन लागू कर दिया है.

अनुमिता बताती है कि इस साल इस समस्या से निपटने के लिए दो योजनाएं बनाई गई हैं, एक आपातकालीन योजन और दूसरी कंप्रीहेंसिव यानी व्यापक योजना, “हम जानते हैं कि इस वक्त पर हवा खराब होने के कई कारण है जैसे कि मौसल में परिवर्तन.आपातकालीन योजना या फिर इमरजेंसी प्लान दिन प्रतिदिन की समस्या से पिनटने के लिए बनाया गया है. इस प्लान के तहत बदरपुर पावर प्लांट को बंद कर दिया गया है, ईंट भट्टियों और कचरा जलने पर प्रतिबंध लगाया गया है, सड़कों की सफाई मशीनों द्वारा कराई जा रही है. दूसरी योजना यानी की व्यापक योजना के तहत इस समस्या के लिए साल भ्सर हमें काम करना होगा ताकि साल दर साल इस इमरजेंसी प्लान की जरूरत ही ना पड़े.हम जानते है समस्या कहां है, इससे निपटने की योजना भी अब हमारे पास है, बस अब जरूरत है इस पर अमल करने की. एनसीआर में जो चार राज्य सरकारें मौजूद है वो अब इसे ढंग से लागू करें.”

स्टॉप बर्निंग- स्टार्ट अरनिंग

आईआईटी दिल्ली के तीन छात्रों द्वारा शुरू किया गया क्रिया लैब्स इसी दिशा में काम कर रहा हैं. क्रिया लैब्स अलग अलग प्रकार के अवशेषों से सेलूलोज और पप्प बनाने का काम कर रहा हैं. तीन संस्थापकों में से एक अंकुर कुमरी बताते है कि, हम जानते है कि दिल्ली एनसीआर में हा साल बढ़ते प्रदूषण का एक अहम कारण पराली का जलना है. इसी समस्या से निपटने के लिए हमने क्रिया लैब्स की शुरूआत की. हम पराली से पल्प बनाते है जो कि विभिन्न उद्योगों के लिए कच्ची सामग्री है. इस पल्प से टेबलवेयर जैसे की कप, प्लेट, कागज, फैब्रिक, बायो एथनोल आदि बनाया जा सकता है.

हम इसे वेस्ट नहीं बल्कि एक उपयोगी ऐसेट के रूप में देखते है. हमारा उदेश्य, स्टॉप बर्निंग,स्टार्ट अरनिंग का है. अगर इस प्रोजेक्ट को बड़े स्तर पर शुरू किया जाता है तो किसान प्रति एकड़ पराली को बेचकर 3000 से 5000 रूपए तक कमा सकता है. इस पल्प से जो प्रोडक्ट बनाए जाते है वो अपने आप 60 दिनों में मिट्टी में घुल जाते है, इस तरीके से ये प्लास्टिक का भी एक बेहतरीन विकल्प है.

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*