मोदी जी स्वच्छ भारत का नारा देते रहे, और पांच साल में भारत बन गया विकसित देशों का कचराघर

कचरों पर आधारित सबसे अधिक उद्योग भारत में हैं जो अमेरिका और यूरोप जैसे विकसित देशों के कचरे से नए पदार्थ बनाते हैं। इन उद्योगों से बेतहाशा प्रदूषण उत्पन्न होता है, लेकिन कुछ गिने-चुने उद्योग ही इस प्रदूषण को नियंत्रित करते हैं।

स्वच्छ भारत का नारा हम पिछले पांच वर्षों से सुन रहे हैं, लेकिन देश लगातार गंदा होता गया है। सरकार को लगता है कि केवल शौचालयों के निर्माण से ही देश साफ हो जाएगा, लेकिन ऐसा होता नहीं है। तरह-तरह का फैला कचरा शहरों से लेकर गांव तक उसी तरह बिखरा है और सरकारें उससे बेखबर हैं। यह हालत तो सभी देखते हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि हमारा देश अमेरिका और यूरोप जैसे विकसित देशों का सबसे बड़ा कचराघर है।

इन देशों के रद्दी कागज, प्लास्टिक, धातु और इलेक्ट्रॉनिक कचरा कानूनी या गैर-कानूनी तरीके से हमारे देश में भेज दिया जाता हैं। इन कचरों पर आधारित सबसे अधिक उद्योग हमारे देश में हैं जो इनसे नए पदार्थ बनाते हैं। इन उद्योगों से बेतहाशा प्रदूषण उत्पन्न होता है, लेकिन कुछ गिने-चुने उद्योग ही इस प्रदूषण को नियंत्रित करते हैं। ऐसे अधिकतर उद्योग असंगठित क्षेत्र में हैं, जो प्रदूषण के सबसे बड़े स्त्रोत हैं।

दो साल पहले तक चीन ऐसे कचरे का सबसे बड़ा बाजार था और साथ ही वायु प्रदूषण का पर्याय भी था, लेकिन जनवरी 2018 में चीन ने अपने देश के वायु प्रदूषण को कम करने के उद्देश्य से यूरोप और अमेरिका के कचरे के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके पहले तक दुनिया भर के कागज, धातु और प्लास्टिक के कचरे का लगभग आधा भाग चीन पहुंचता था।

यहां यह भी ध्यान देना आवश्यक है कि दुनिया के सबसे प्रदूषित 25 शहरों में से महज 2 शहर चीन के हैं और राजधानी बीजिंग इस सूची में 122वें स्थान पर है। इसके विपरीत, हमारी सरकार वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने का नाटक तो करती है, लेकिन कचरे के आयात का दिल खोल कर स्वागत करती है। दुनिया के 25 सबसे प्रदूषित शहरों में से 20 भारत के हैं और दिल्ली इस सूची में 11वें स्थान पर है।

चीन ने जब दुनिया भर के कचरे के आयात को बंद कर दिया तब विकसित देशों को भारत का सहारा मिला। पिछले एक साल के दौरान ही यूरोपियन यूनियन से कागज के कचरे के आयात में 200 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई, जबकि अमेरिका से यह आयात 100 प्रतिशत बढ़ गया।

रद्दी कागज से कागज बनाने वाले अनेक उद्योग जो बंद हो चुके थे या बंदी के कगार पर थे, अब अपनी क्षमता से अधिक उत्पादन करने लगे हैं। हालत यहां तक पहुंच गई है कि देश में कुल 1.4 करोड़ टन प्रतिवर्ष रद्दी कागज के प्रसंस्करण की क्षमता है, लेकिन देश से इस योग्य कुल 30 प्रतिशत कचरा ही उत्पन्न होता है। इसीलिए यहां रद्दी कागज का आयात बढ़ता जा रहा है।

रद्दी कागज के साथ-साथ बड़े देशों में भारत ही एक ऐसा देश है जहां कागज की मांग और उपयोग लगातार बढ़ता जा रहा है। यह अजीब तथ्य भी है कि हमारे देश में “पेपरलेस” की चर्चा जितनी बढ़ती जा रही है, कागज़ का उपयोग भी उतना ही बढ़ता जा रहा है। यहां तक कि अखबार की संख्या भी बढ़ रही है। साल 2016 में अखबार और पत्रिकाओं की 6.3 करोड़ प्रतियां छापी गईं, जबकि साल 2012 में यह आंकड़ा 4 करोड़ था।

मार्च से हमारे देश में विदेशों से प्लास्टिक कचरे के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। अब केवल देश में उत्पन्न प्लास्टिक कचरा से ही प्रसंस्करण किया जा सकेगा। देश में प्रतिदिन 26000 टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है। साल 2018 में जब चीन ने प्लास्टिक कचरे का आयात बंद कर दिया तब अधिकतर कचरा भारत भेज दिया गया। हालांकि इस बीच मलेशिया में इसका आयात तीन गुना बढ़ गया और वियतनाम और थाईलैंड में भी 50 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है।

आश्चर्य है कि एक तरफ तो हमारी सरकार पर्यावरण संरक्षण को प्राचीन परंपरा मानती है, तो दूसरी तरफ दुनिया भर के कचरे का स्वागत करती है। प्लास्टिक कचरे पर भले ही प्रतिबंध लगाया गया हो, लेकिन कागज, धातु और इलेक्ट्रोनिक कचरे के आयात पर कोई नियंत्रण नहीं है। सरकार की नाक के नीचे ही ऐसे अनेक उद्योग असंगठित क्षेत्र में चल रहे हैं और आबोहवा प्रदूषित कर रहे हैं।

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