इंदौर . रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) बीते चार सालों से अपने लाभ को सरकार के पास ट्रांसफर कर रहा है, लेकिन मोदी सरकार का मन इससे नहीं भरा है और वह लालची हो गई है, इसलिए अब उसकी नजरें रिजर्व बैंक के रिजर्व फंड पर हैं। यह बात पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने रविवार को इंदौर में मीडिया से चर्चा में कही। उन्होंने कहा कि 19 नवंबर को आरबीआई की बोर्ड बैठक है, इसमें बोर्ड के पास दो ही विकल्प हैं।
पहला सरकार के दबाव को मानते हुए फंड ट्रांसफर करने के प्रस्ताव को पास कर दे या फिर दूसरा इस्तीफा दे दे। उन्होंने कहा कि 70 साल में आरबीआई के साथ जो नहीं हुआ, वह अब हो रहा है, सरकार गवर्नर को बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स का एक कर्मचारी मान रही है, बोर्ड और कुछ नहीं केवल कुछ बिजनेसमैन आदि का समूह है।
नोटबंदी और जीएसटी बाद तय रेवेन्यू नहीं मिल पा रहा
आरबीआई कोई पब्लिक लिमिटेड कंपनी नहीं है और यह सेंट्रल बैंक है जिसे गवर्नर चलाता है। दरअसल, नोटबंदी और जीएसटी के बाद भी तय लक्ष्य जितना रेवेन्यू नहीं आ रहा, इसलिए सरकार की नजरें अब आरबीआई के रिजर्व फंड पर हैं। आज सरकार हर संस्था को कब्जे में ले रही है। वर्तमान आरबीआई विवाद की शुरुआत ही नोटबंदी से हुई। 7 नवंबर 2016 को सरकार ने आरबीआई को पत्र लिखकर नोटबंदी के लिए कहा।
आनन-फानन में दिल्ली में 8 नवंबर की शाम साढ़े पांच बजे बोर्ड की बैठक बुलाई और इसे लागू करने का प्रस्ताव पास कराया गया। जबकि सरकार और आरबीआई दोनों तैयार नहीं थे। दो हजार का नोट एटीएम में नहीं आता उन्हें यह तक मालूम नहीं था। सरकार को लगता था कि तीन से चार लाख करोड़ ब्लैक मनी आएगी, लेकिन 99.3 फीसदी नोट वापस आ गए। सरकार को कुछ हासिल नहीं हुआ। यह चतुराई से काले धन को वैध बनाने की स्कीम थी।
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