विधानसभा चुनावों के नतीजे साबित करते हैं कि लोकतंत्र में विकल्पहीनता की जगह नहीं होती

राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में बीजेपी केंद्र और राज्य स्तर पर मजबूत नेतृत्व की बढ़त के साथ मैदान में उतरी थी. ऐसा लग रहा था कि बीजेपी के अंदर और इसके समर्थकों के बीच ये आम राय थी कि बीजेपी के लिए एक फायदे वाली बात ये भी है कि पार्टी का कोई विकल्प नहीं है. बड़े ऐतबार के साथ चुनाव मैदान में उतरी बीजेपी का तीनों ही राज्यों में सफाया हो गया. बीजेपी के खिलाफ 3-0 के इस जनादेश से एक बहस छिड़ गई है. हालांकि 3-0 से हार की भविष्यवाणी तो सी-वोटर के एक्जिट पोल ने भी की थी. लेकिन, जो जनादेश आया है, उससे भविष्य के लिए कई सबक मिलते हैं.

सियासी पंडितों का क्या था अनुमान?

11 दिसंबर 2018 को नतीजे आने से एक दिन पहले सियासी पंडितों को ये लग रहा था कि राजस्थान में तो बीजेपी का सफाया हो जाएगा. जबकि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मुकाबला कांटे का होगा. लेकिन, जब असल नतीजे आए, तो मध्य प्रदेश में तो वाकई कांटे की टक्कर दिखी. लेकिन, चौंकाने वाला जनादेश राजस्थान का रहा, जहां पर सत्ताधारी पार्टी और विपक्षी कांग्रेस के बीच जीत-हार का अंतर बहुत ज्यादा नहीं रहा.

सबसे चौंकाने वाले नतीजे तो छत्तीसगढ़ के रहे. सवाल ये उठता है कि छत्तीसगढ़ में ऐसा क्या हुआ कि ऐसा जनादेश आया? इस सवाल के जवाब में हम ये कह सकते हैं कि छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के नतीजे, 2019 के लोकसभा चुनाव के लिहाज से बीजेपी को कई सबक सिखाने वाले हैं. इस विधानसभा चुनाव में छत्तीसगढ़ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में कोई चेहरा नहीं था. कोई बड़ा नेता नहीं था और पार्टी का संगठन भी दिशाहीन था. इसके बरक्स, बीजेपी की चुनावी लड़ाई के अगुवा करिश्माई मुख्यमंत्री रमन सिह थे. रमन सिंह ने राज्य में कई बेहद कामयाब कल्याणकारी योजनाओं को जमीनी स्तर तक पहुंचाया. फिर भी, बिना लहर वाले चुनाव में बीजेपी का सफाया हो गया. बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस को दस फीसद वोट ज्यादा मिले. स्थानीय विधायकों और सांसदों के प्रति नाराजगी ने रमन सिंह की उपलब्धियों को मिट्टी में मिला दिया.

तो, आखिरकार ‘चावल बाबा’ के नाम से जाने जाने वाले रमन सिंह के साथ हुआ क्या? उनके मजबूत नेतृत्व का करिश्मा चला क्यों नहीं?

सीधे-सपाट शब्दों में बयां करें, तो छत्तीसगढ़ के नतीजों ने 1967 के चुनाव की याद दिला दी. 1967 में चेहरे और नेतृत्वविहीन विपक्ष ने इंदिरा गांधी जैसी कद्दावर नेता को कई राज्यों में धूल चटा दी थी. अनजान चेहरे, कई राज्यों के मुख्यमंत्री बनकर उभरे थे. यानी जब लोग सत्ता परिवर्तन की ठान लेते हैं, तो अपनी पूरी ताकत किसी भी ऐसे सियासी दल के पीछे लगा देते हैं, जो मजबूत हो या नहीं, पर विकल्प बन सके. यूं तो, रमन सरकार की कल्याणकारी योजनाएं, उन्हें दो चुनाव जिताने में कामयाब रही थीं. लेकिन, इस बार ये नुस्खा काम नहीं आया.

राजस्थान में बीजेपी के अच्छे प्रदर्शन की दो वजहें थीं

अगर छत्तीसगढ़ में 1967 के सियासी हालात दोहराए गए, तो राजस्थान के नतीजों ने बीजेपी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत की याद दिला दी. बीजेपी की वसुंधरा सरकार के खिलाफ जिस कदर नाराजगी थी, उसे देखते हुए कांग्रेस और बीजेपी के बीच कांटे का मुकाबला चौंकाने वाला रहा. इसकी दो वजहें रहीं. एक तो बीजेपी के तेंदुलकर यानी नरेंद्र मोदी की स्लॉग ओवरों में शानदार सियासी पारी थी. दूसरी वजह थी अशोक गहलोत का अपनी ही पार्टी कांग्रेस से भितरघात. अशोक गहलोत ने टिकटों का बंटवारा इस तरह किया था कि पार्टी एक तय तादाद से ज्यादा विधायक अपने बूते न जीत सके. इसके पीछे अशोक गहलोत का इरादा ये था कि कांग्रेस के पास बहुमत न हो. या फिर कांग्रेस सरकार तो बना ले, पर उसकी स्थिरता के लिए वो गहलोत जैसे सीनियर नेताओं के भरोसे हो, जो विधानसभा में सरकार के लिए जरूरी बहुमत जुटा सकें. इससे सियासी प्रयोग की गुंजाइश न के बराबर हो जाती.

ये बीजेपी के दिग्गज नेता भैरोंसिंह शेखावत के सियासी मॉडल की नकल थी. 1990 के दशक में बीजेपी के भैरोंसिंह शेखावत इसी बात के लिए जाने जाते थे. वो करीब दो दर्जन भरोसेमंद निर्दलीयों को राज्य में अलग-अलग सीटों से चुनाव लड़वाते थे. चुनाव जीतने के बाद वो इस शर्त पर बीजेपी में वापिस आते थे कि मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत ही हों. अशोक गहलोत ने शेखावत मॉडल की नकल की ताकि सचिन पायलट के मुकाबले मजबूत स्थिति में हों. मगर, अशोक गहलोत का ये सियासी गुणा-गणित पूरी तरह कामयाब नहीं हुआ. कांग्रेस को अपने बूते बहुमत मिल गया. ऐसे में 20 विधायक जुटाकर सीएम बनने का गहलोत का दांव वैसा नहीं पड़ा, जैसी कि उन्हें उम्मीद थी. तो, राजस्थान में बीजेपी के उम्मीद से ज्यादा प्रदर्शन के पीछे यही दो वजहें थीं. प्रधानमंत्री की निजी लोकप्रियता और गहलोत का भितरघात.

लोकतंत्र में विकल्पहीनता की कोई जगह नहीं होती

अब बारी आती है मध्य प्रदेश के नतीजों की समीक्षा की. यहां बीजेपी और कांग्रेस के बीच मुकाबला इतना कांटे का था कि आखिरी पोलिंग बूथ तक लड़ाई चली. किसी भी पार्टी को बहुमत न देकर मध्य प्रदेश ने वीपी सिंह के दौर की यादें ताजा कर दीं. 1989 में चंद्रशेखर ने अपनी सियासी ताकत के बूते केंद्र में गैरकांग्रेसी सरकार बनवाने में अहम रोल अदा किया था. लेकिन, आखिर में उनके हाथ ठेंगा लगा. क्योंकि, देवीलाल ने प्रधानमंत्री पद के लिए वीपी सिंह के नाम का प्रस्ताव कर दिया. मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह ने ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ वीपी सिंह वाला हाल ही किया. दिग्विजय ने नतीजे आने के बाद अपना समर्थन कमलनाथ को दे दिया. इस मामले की बात करें, तो मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य के युवा चेहरे को लोगों ने काफी पसंद किया. कांग्रेस पार्टी को भी इसका फायदा हुआ. लेकिन, आखिर में ज्योतिरादित्य सिंधिया को कमलनाथ को मुख्यमंत्री पद लेते देखने को मजबूर होना पड़ा. अब आगे चलकर ज्योतिरादित्य सिंधिया, चंद्रशेखर की तरह का सियासी दांव चलेंगे या नहीं, ये देखने वाली बात होगी.

मध्य प्रदेश में एक से एक कद्दावर नेता होने और मजबूत जमीनी संगठन होने के बावजूद बीजेपी हार गई. बीजेपी के 15 साल के राज में मध्य प्रदेश ने विकास के कई मानकों पर तरक्की की है. बुनियादी ढांचे के विकास की बात हो, मानव संसाधन के विकास की बात हो या फिर जनकल्याण की योजनाएं लागू करने का मसला हो, मध्य प्रदेश ने शानदार प्रदर्शन किया है. लेकिन, लोकतंत्र में विकल्पहीनता के लिए कोई जगह नहीं होती. मसलन, जब प्रधानमंत्री मोदी गुजरात बीजेपी के प्रभारी हुआ करते थे, तब बीजेपी ने विधानसभा चुनाव जीता और केशुभाई पटेल 1995 में राज्य के मुख्यमंत्री बने. एक आम गुजराती की बात करें, तो वो केशुभाई पटेल के नाम से उस वक्त वाकिफ नहीं था. उस वक्त तो लोग मोदी का नाम भी नहीं जानते थे. लेकिन, गुजरात की जनता 1995 में बिना चेहरे वाली पार्टी को भी सत्ता की चाबी देने से नहीं हिचकी.

गुजरात के इस प्रयोग का नतीजा ये हुआ कि देश की राजनीति हमेशा के लिए बदल गई. उस वक्त कांग्रेस भी आज की बीजेपी की तरह ये सोचती थी कि जनता के पास उसका विकल्प नहीं है. लेकिन, इस बात ने मोदी की अगुवाई में बीजेपी को कोशिश करने से नहीं रोका. इसी तरह छत्तीसगढ़ में भी नेतृत्वविहीन कांग्रेस ने बीजेपी का सूपड़ा साफ कर दिया. ये बात अन्य राज्यों में भी देखने को मिल सकती है. शर्त ये है कि अगले आम चुनाव को कांग्रेस पार्टी राहुल बनाम मोदी न बनाए. लेकिन, कांग्रेस की चापलूसी की संस्कृति के इतिहास को देखते हुए, ये उम्मीद पालना खतरे से खाली नहीं.

2019 में बीजेपी की राह का रोड़ा बन सकते हैं ये मुद्दे

राष्ट्रीय स्तर पर अभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की लोकप्रियता के बीच कोई मुकाबला नहीं. लेकिन, लेकिन बीजेपी के सामने अपने तुरुप के इक्के के जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल होने का जोखिम है. ये बात तो आम हो चली है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी से बीजेपी के वोट कई फीसद बढ़ जाते हैं. लेकिन, दो ऐसे मुद्दे हैं, जो 2019 में सत्ता में वापसी की बीजेपी की राह में रोड़ा बन सकते हैं.

1. कृषि क्षेत्र का संकट- पूरे देश में किसानों की हालत खराब है. खेती का बुरा हाल है. जमीन के मालिक मध्यम दर्जे के किसान भी कर्ज लेने को मजबूर हो रहे हैं. इसका नतीजा ये हुआ है कि भूमिहीन मजदूर और दूसरे गरीबों को होने वाली कमाई भी कम हो गई है. ये वो लोग हैं जो अपनी आमदनी के लिए बड़े किसानों पर निर्भर होते हैं. इसका नतीजा ये हुआ है कि ग्रामीण क्षेत्र में बड़ा आर्थिक संकट पैदा हो गया है, जिस पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है.

2. इस चुनाव में मध्यम वर्ग 2004 की तरह अलग-थलग रहा. 2004 के चुनाव में तो मध्यम वर्ग के पास ज्यादा शिकायतें नहीं थीं. लेकिन, इस बार तो मध्यम वर्ग को लग रहा है कि उसका कोई माई-बाप नहीं है. इस वर्ग की आर्थिक चुनौतियां बढ़ गई हैं. ये वर्ग बीजेपी का परंपरागत वोटर रहा है. ऐसे में बीजेपी को मध्यम वर्ग की शिकायतों की गहराई से पड़ताल करनी चाहिए.

और आखिर में, सियासत के कारोबार में विनम्रता बेशकीमती होती है. किसी भी दल को ये अहंकार नहीं होना चाहिए कि वो सदा के लिए सत्ता में आ गई है. किसी भी लोकतंत्र में जनादेश की कमान केवल जनता के हाथ में होती है. ऐसे में कोई भी पार्टी अगर ये सोचती है कि उसका कोई विकल्प नहीं, तो ये उसकी भारी भूल हो सकती है. किसी को भी ऐसे मुगालते में नहीं रहना चाहिए.

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*