राहुल गांधी पर पाकिस्तान से ‘गठबंधन’ के आरोप लगा कर बीजेपी ने अपनी घबराहट जाहिर कर दी

अगले साल के लोकसभा चुनावों से पहले महत्वपूर्ण चुनावों की श्रृंखला में, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने अपने विभाजनकारी, सांप्रदायिक एजेंडे को बढ़ाकर अपनी घबराहट को उजागर कर दिया है. इस प्रक्रिया में, पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने, जिसमें इसके अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्रिपरिषद के कुछ मंत्री भी शामिल हैं, शाब्दिक हमले के लिए जिस भाषा का चुनाव किया है, वह लोकतांत्रिक परंपराओं से परे है.

शनिवार को, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने अपनी पार्टी द्वारा चलाई जा रही सरकार को घेराबंदी करके गिराने की कोशिश का आरोप लगाकर अपने वोट बैंक को एकजुट करने की कोशिश की. यह एक तरह से अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की राजनीति के तरीके की ही नकल है, जिसमें वो विपक्षियों के अंक भी छीन कर अपने साथ जोड़ लेना चाहते हैं.

बुनियादी शिष्टाचार की बात तो भूल जाइए, शाह ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पर आरोप जड़ा कि वो राफेल सौदे पर सवाल उठाकर पाकिस्तान के साथ गठबंधन कर रहे हैं और कांग्रेस अध्यक्ष ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘चोर’ कहा. शाह न केवल मुख्य विपक्षी दल पर भारत के दुसाध्य पड़ोसी के साथ एक राष्ट्रद्रोही साजिश रचने का आरोप लगा रहे थे बल्कि अपनी पार्टी में व्याप्त आशंका को भी भुलावा दे रहे थे कि राफेल सौदे पर मची उथल-पुथल बीजेपी को गंभीर रूप से नुकसान पहुंचा सकती है.

 

मामला चाहे जो भी हो, शायद ही कभी ऐसा हुआ होगा कि एक विपक्षी पार्टी के नेता पर ‘दुश्मन’ देश के साथ गठबंधन करने का आरोप लगाया जाए, जबकि वह एक ऐसे रक्षा सौदे के बारे में सवाल उठाता है, जिसमें इस सौदे की परिस्थितियों को देखते हुए कुछ तो दम है. राहुल गांधी के ‘झूठ’ को पकड़ने के लिए कार्रवाई का सबसे अच्छा और सबसे पारदर्शी तरीका संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) द्वारा जांच की मांग को स्वीकार करना होगा, जैसा कि कांग्रेस पार्टी ने 2-जी बैंडविथ आवंटन में आपराधिक गड़बड़ी के आरोपों पर किया था.

हालांकि, अगले दिन ही यही अमित शाह भारी बहुमत के समर्थन वाली मुद्रा के साथ मुद्दे से ध्यान हटाने की कोशिश कर रहे थे, जब उन्होंने ‘अवैध अप्रवासियों’ की तुलना दीमक से करते हुए कहा कि ये लोग हमारा वो अनाज खा जा रहे हैं, जो गरीबों के पास पहुंचा चाहिए और हमारी नौकरियां ले रहे हैं. इस तथ्य को भूल जाइए कि मोदी सरकार वास्तव में अनाज बांट कर और नौकरियां पैदा कर कभी भी गरीबों को आशाओं का केंद्र नहीं बन सकी है.

यह देखते हुए कि इस टिप्पणी का लक्ष्य स्पष्ट रूप से बांग्लादेशी प्रवासी थे, शाह की टिप्पणियों ने उस सरकार पर दबाव बढ़ा दिया है जिसने भारत की सुरक्षा चिंताओं को दूर करने के लिए बहुत कुछ किया है. अवामी लीग पार्टी जो इस समय बांग्लादेश में सरकार में है, साल के अंत में चुनावों का सामना करने वाली है (जबकि इसके चार या पांच महीने बाद बीजेपी चुनाव का सामना करेगी) और उस देश में आमतौर पर व्याप्त भारत विरोधी भावना को देखते हुए उसका भारत की चिंताओं से सहानुभूति रख पाना मुश्किल लगता है. ऐसा लगता है कि अमित शाह ने इस बारे में नहीं सोचा. या शायद, उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.

किसी भी कीमत पर, बहुमत के समर्थन वाली राजनीति और इस पर निर्भरता बीजेपी की विश्वदृष्टि के लिए इतनी महत्वपूर्ण है कि उनका बार-बार इसकी आड़ लेना एकदम स्वाभाविक है. वास्तव में, अमित शाह का बयान उसी परियोजना का हिस्सा है, जिसमें उनकी पार्टी सहयोगी, और भाग्य से रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण हिस्सेदार हैं, जिन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्र संघ चुनाव जीतने वालों पर भारत-विरोधी होने का आरोप जड़ा था.

शाह के बाद, उनकी पार्टी भी अब उनके साथ कदमताल कर रही है. सोमवार को बीजेपी के कई वरिष्ठ नेताओं ने दावा किया कि राफेल डील और प्रधानमंत्री की ईमानदारी पर सवाल उठाकर कांग्रेस पार्टी ने साबित कर दिया कि वह राष्ट्रविरोधी है. यह ऐसा सर्वव्यापी आरोप है जिसका इस्तेमाल व्यावहारिक रूप से किसी भी शख्स के लिए किया जा सकता है, वो भले पार्टी समर्थक ना हो.

 

इस तरह, निर्मला सीतारमण ने जेपीसी जांच की मांग को खारिज करते हुए कहा, ‘हम कतई इस झूठे प्रचार से सहमत नहीं होंगे. अब आप इसका एक अंतरराष्ट्रीय आयाम भी देख रहे हैं.’ इसका मतलब यह भी निकाला जा सकता है: हमें संदेहों को दूर करने की परवाह नहीं है. हालांकि गहरे संदेह उठाए गए हैं, लेकिन इन संदेहों को उन लोगों द्वारा उठाया गया है जो पाकिस्तान के साथ मिले हुए हैं.

पार्टी के प्रवक्ता संबित पात्रा ने भी इस विषय पर, अधिक विस्तार से अपनी बात रखी, जैसा कि उनका हमेशा का अंदाज है (और संभवतः यही उनकी जमा-पूंजी है). कांग्रेस और पाकिस्तान के बीच क्या समानता है? यह सवाल पूछने के बाद उन्होंने खुद ही इसका जवाब दिया. दोनों में समान फ्रस्ट्रेशन है. कांग्रेस और पाकिस्तान दोनों ‘किसी भी तरह मोदी को भारतीय राजनीति से हटाना चाहते थे.’ हालांकि हकीकत यह है कि इस्लामाबाद में कोई भी सत्ता नई दिल्ली में कट्टरपंथी सरकार देखना ही पसंद कर सकेगी, क्योंकि एक कट्टरपंथी सत्ता दूसरे को मजबूती देती है, यह एक ऐसी बात है जो संभवतः उनके दिमाग में नहीं आती.

बीजेपी और मोदी के खिलाफ ‘अंतरराष्ट्रीय महागठबंधन’ के इन सभी आरोपों में समानता यह है कि, सत्तारूढ़ दल ने राष्ट्र, देश और पार्टी के साथ उनके हित, संघ परिवार और उनके हितों का घालमेल कर दिया है. इस कल्पनालोक में सत्तारूढ़ दल व उसके वैचारिक अभिभावक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सांगठनिक भाई-बहनों की कोई भी आलोचना करना, राष्ट्र को गाली देना है और जो लोग ऐसा करते हैं वो राष्ट्र को खंडित करने की कोशिश कर रहे हैं. इस बचकानी और अक्खड़ विचारधारा के मतिभ्रम पर कोई क्या कह सकता है.

हालांकि हम यही कह सकते हैं कि बीजेपी की विफलताएं दो मोर्चों पर अधिक क्रूर रूप से उजागर हो रही हैं- विकास और सुशासन का वादा- इन पर पार्टी की लफ्फाजी ज्यादा कानफोड़ू होती जा रही है.

आक्रामक आत्मरक्षा के बढ़ते शोर में नई धारणा यह है कि सत्तारूढ़ दल की राजनीति और प्रतिष्ठा अब बाजार की एक ड्रग बन गई है. यह ड्रग बिक नहीं रही है, क्योंकि वही लोग जिनका पात्रा ने मोदी के साथ होने का दावा किया था-तथाकथित पिछड़े वर्ग के लोग- अब इसे खरीद नहीं रहे हैं.

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