खुलकर भले न करें, लेकिन मन ही मन प्रधानमंत्री जी को कबीर से क्षमायाचना कर लेनी चाहिए!

कल प्रधानमंत्री ने मगहर में कबीर की जयंती के बदले पुण्यतिथि मनाई है, हालांकि यह अकेली गलती नहीं है जिसके लिए उन्हें इस संत से क्षमायाचना करनी चाहिए

 

भारत के प्रधानमंत्री कल मगहर हो आए. कल ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा थी. कायदे से इस दिन को संत कबीर की जयंती के रूप में मनाया जाता रहा है, लेकिन प्रधानमंत्री वहां उनकी पुण्यतिथि मना आए. उनके साथ मौजूद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी नाथ परंपरा के योगी कहे जाते हैं. लेकिन उन्हें भी यह मालूम नहीं रहा होगा. हिंदी और अंग्रेजी के कुछेक समाचार माध्यमों को छोड़कर लगभग सभी ने उसकी खबर भी पुण्यतिथि के रूप में ही चलाई है. यानी कि इन सभी रिपोर्टरों और संपादकों ने या तो इस महत्वपूर्ण तथ्य की अनदेखी की या इससे अनभिज्ञ रहे. सनद रहे कि कबीर साहेब की पुण्यतिथि हमेशा की भांति इस वर्ष भी माघ शुक्ल एकादशी यानी 27 जनवरी, 2018 को मनाई जा चुकी है.

प्रधानमंत्री जी अपने मौजूदा कार्यकाल के आखिरी साल में मगहर गए. सांसद के रूप में उनकी यात्रा काशी से शुरू हुई और अब वे अपने प्रधानमंत्रित्व के अंतिम वर्ष में मगहर गए. वैसे ही जैसे कबीर अपने जीवन के अंतिम वर्षों में काशी छोड़कर मगहर गए थे. यह सब एक संयोग है, लेकिन यहां कुछ दुर्योग भी हैं. इस आलेख में हम उन्हीं दुर्योगों को समझने की कोशिश करेंगे.

मगहर के बारे में कई जनश्रुतियां हैं. एक जनश्रुति है कि कबीर साहेब ने जब घोषणा कर दी कि मैं काशी में न मरकर शरीर छोड़ने के लिए मगहर जाऊंगा, तो इस पर काशी स्थित मिथिला के कुछ पंडित उनसे मिलने गए. पंडितों ने कबीर से कहा कि काशी में मरने वाले को तो मोक्ष मिलता है और मगहर में मरने वाला गधा होता है. तो फिर आप जैसे संत मगहर क्यों जाएं. इस पर कबीर ने कहा कि मोक्ष तो वास्तव में मगहर में मरने पर ही मिलता है. यदि तुम लोग भी सच्चे पंडित हो तो मगहर में ही मरने की तैयारी करो. इस पर पंडितों ने कबीर पर चुटकी ली कि अच्छा फिर तो आप भी अंधविश्वासी ही ठहरे. काशी के मोक्ष-धाम होने का जैसा हमारा अंधविश्वास, वैसे ही मगहर के मोक्ष-धाम होने का आपका अंधविश्वास. बात तो एक ही हुई न?

इस पर कबीर ने पंडितों को ठीक से समझाते हुए कहा- ‘मैं उस मगहर में मुक्ति की बात नहीं करता हूं जो गोरखपुर के पश्चिम में पड़ता है, जो कि एक गांव है. मेरे मगहर का अर्थ है- ‘मग’ यानी रास्ता और ‘हर’ यानी ज्ञान. मग + हर = ज्ञानमार्ग. इसलिए पंडितों! किसी भौतिक स्थल में मरकर मोक्ष की कामना करना व्यर्थ है. केवल ज्ञानमार्ग ही मोक्ष का स्थान है. यही आध्यात्मिक मगहर है. ’

इसी घटना पर कबीर साहब द्वारा कहा गया एक शबद भी है, जो इस प्रकार है-

‘लोगा तुमहीं मति के भोरा।।

ज्यों पानी-पानी मिलि गयऊ, त्यों धुरि मिला कबीरा।।2।।

जो मैथिल को सांचा ब्यास, तोहर मरण होय मगहरपास ।।3।।

मगहर मरै, मरै नहीं पावै, अन्तै मरै तो राम लजावै।।4।।

मगहर मरै सो गदहा होय’ भल परतीत राम सो खोय ।।5।।

क्या काशी क्या मगहर ऊसर, जो पै हृदय राम बसे मोरा ।।6।।

जो काशी तन तजै कबीरा, तो रामहिं कहु कौन निहोरा ।।7।।’

तो इसलिए दुर्योग यही रहा कि भारत और उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार कबीर के अर्थों वाले मगहर (ज्ञानमार्ग) से च्युत हो गए लगते हैं. तभी तो कबीर की जयंती के दिन उनकी पुण्यतिथि मना आए. और इतना ही नहीं, ऐसे पवित्र स्थल पर जाकर एक संकीर्ण राजनीतिक और चुनावी भाषण भी दे आए. खेद के साथ लिखना पड़ रहा है कि एक महान संत की समाधि जैसे आध्यात्मिक स्थल पर जाकर दलीय और चुनावी राजनीति का पाशा फेंकने लगना प्रधानमंत्री जैसे पदधारी को शोभा नहीं देता.

एक पल को यदि यह मानकर चलें कि संत कबीर आज जीवित होते और प्रधानमंत्री जी अपने लाव-लश्कर के साथ इसी राजनीतिक मंशा से वहां पहुंचे होते, तो कबीर क्या सोचते, क्या कहते. हमें आज भी ऐसे स्थलों पर यही सोचकर जाना चाहिए मानो वे संत वहां मौजूद हों. वहां हमारा व्यवहार, हमारी बातें उसी अनुरूप होनी चाहिए. ऐसे स्थलों पर हमें अपना पद, लोभ-लाभ और अपनी सत्ता आदि भूलकर एक सामान्य मनुष्य की भांति जाना चाहिए. वहां अपना हृदय खोलकर रखना चाहिए. संतों के सामने ऐसे छोटे-मोटे क्षणकालिक पदधारियों की क्या बिसात?

संत कबीर तो स्वयं ही कह गए हैं कि ‘जाके कछु न चाहिए सो साहनपति साह’. कबीर तो शहंशाहों के भी शहंशाह थे. कोई भी सच्चा संत ऐसा ही होता है. जनश्रुतियों में है कि जब सिकंदर लोदी ने अपने बनारस प्रवास के दौरान कबीर को अपने दरबार में आने का फरमान भिजवाया था, तो कबीर ने वहां जाने से मना कर दिया था. और जब जबरदस्ती ले जाए गए, तो वहां भी उन्होंने सिकंदर लोदी को अपना मालिक, अपना शहंशाह मानने से इनकार कर दिया था. उनका कहना था कि वे तो बस उस एक निराकार तत्व को ही अपना सबकुछ मानते हैं. उस अनादि, अनंत, अलख और अपरंपार के सामने राजा, रंक औऱ फकीर सब बराबर हैं.

तो संतों के प्रति हर किसी की वही भावना होनी चाहिए. हम उन संतों को दे ही क्या सकते हैं, जिन्हें कुछ चाहिए ही नहीं? प्रचलित अर्थों वाले मान-सम्मान, संस्था और स्मारक, पद और पदवी आदि की जरूरत हमारे राजनेताओं को हो सकती है, लेकिन सच्चे संतों को इनसे क्या? संतों के लिए यह सब धूल है, मिट्टी है. इसलिए हमें ऐसे स्थलों पर बहुत विनम्र होकर जाना चाहिए. चुपचाप जाना चाहिए. वहां मौन रहकर उन पुण्य पारमिताओं को महसूस करना चाहिए, जो उन संतों ने अपनी साधना से हासिल की होगी. ऐसे स्थलों पर उन संतों की अनुभूत वाणियों के आईने में स्वयं को देखने का मौन अभ्यास करना चाहिए. ये क्या कि वहां भी जाकर हम वही सब करें जो दिन-रात हर कहीं करते रहते हैं. ये सांसारिक सत्ता कितने दिनों की? दल और पद कितने दिनों का? ये हाथी-घोड़े और लाव-लश्कर कितने दिनों का? दुनियाभर में कितने ही शासक आए और गए. उनको समाज याद रखे न रखे, लेकिन सच्चे संतों और महात्माओं को जरूर याद रखता है.

आज हम कहां से कहां आ गए कि संतों के प्रति हमारा प्रेम भी राजनीतिक हो चला है. उस राजनीति के नशे में हमें यह भी होश नहीं रहता कि उनकी जयंती कब है और पुण्यतिथि कब. जब हम केवल अपने-आप से ही अभिभूत रहते हैं और केवल अपना राजनीतिक लक्ष्य ही सामने रखकर चलते हैं, और उसे आध्यात्मिकता का जामा पहनाने की कोशिश करते हैं, तो ऐसी ही मूढ़ता सामने आती है. हमारे प्रधानमंत्री जी के लाव-लश्कर में भी किसी को कबीर से वास्तव में कोई मतलब होता, तो शायद वे उन्हें बता पाते! नाथपंथी और गोरखनाथी कहे जानेवाले एक योगी मुख्यमंत्री भी उनके साथ थे, लेकिन राजनीतिक मदहोशी उनकी भी रही-सही आध्यात्मिकता को लील चुकी होगी, तभी उनकी गोरखनाथी अक्खड़ता का लोप हो चुका है. अन्यथा कम-से-कम उन्होंने इसका ध्यान अवश्य रखा होता. राजनीतिक ज्वर का उत्ताप हमें क्या से क्या बना सकता है, यह घटना उसकी मिसाल है.

हम जयंती के दिन पुण्यतिथि मना आए. कबीर ने तो जन्म और मृत्यु की साक्षात अनुभूति कर उसका गान किया था. उसके मर्म का गान किया था. उनके लिए क्या काशी और क्या मगहर! किसी भी जयंती और पुण्यतिथि से उनका क्या वास्ता! अशुद्ध मंशा से और निरी अज्ञानता में हम चादर चढ़ा आएं या भजन-आरती गा आएं, कुछ फर्क नहीं पड़ता. ऐसी ही परिस्थितियों के लिए संत कबीर स्वयं कह गए हैं –

“करती दीसे कीरतन, ऊंचा करि करि तुंड.

जाने-बूझे कुछ नहीं, भौं ही अंधा रुंड. . ”

यानी गर्दन ऊंची करके यदि हम ऊंचे स्वर में कीर्तन के शब्द बोलते रहें और जाने-बूझें कुछ नहीं, तो हम अंधे और बिना सिर वाले मनुष्य ही कहलाएंगे.

अभी राजनीति और नौकरशाही में ऐसे ही तुंड और रुंड-मुंड वालों की भरमार हो चली है. लेकिन यदि हमारा लोक समाज कबीर जैसे संतों के भी राजनीतिक दुरुपयोग की छूट अपने राजनेताओं को देता है, तो यही कहा जाएगा कि वह अपने कल्याण का अंतिम आश्रय भी गंवाने की राह पर है. कभी हमारे वामपंथी मित्रों ने भी कबीर को सेलेक्टिव रूप से अपनाते हुए उन्हें हड़पने की कोशिश की थी. उसके बाद अस्मितावादी राजनीति ने भी उन्हें एक राजनीतिक प्रतीक बनाने की कोशिश की. और अब ऐसे लोग कबीर का राजनीतिक दुरुपयोग करने की कोशिश में हैं जिनकी राजनीति का दूर-दूर तक कबिराहा चिंतन से कोई मेल नहीं है. कहां कबीर का राम और कहां आपके राम? कोई मेल नहीं है.

कबीर को कबीर ही रहने दीजिए. उनकी करुणा सबके लिए थी. एकसमान थी. कबीर तो यही कहते थे न कि- ‘मैं लागा उस एक से एक भया सब मांहीं। सब मेरा मैं सबन का, इहां दूसरा नाहिं।।‘ इस हिसाब से वह आपके भी हुए, हम सबके हुए. लेकिन उन्हें किसी राजनीतिक रंग में रंगने की कोशिश क्यों? खुद को उनके रंग में रंगकर देखिए न, कितना आनंद है. संतों के दरबार में किसी को किसी से बैर नहीं रखना चाहिए. वहां तो लोग अपने राग-द्वेष के शमन के लिए जाते हैं. लोक समाज को सतर्क होना पड़ेगा. बात जब नीति-अनीति की आएगी, तो हम करुणा के साथ-साथ सतर्कता भी रखेंगे. जनता को चाहिए कि वह किसी के भी ऊपरी भौकाल मात्र से प्रभावित न हो. इसके लिए कबीर साहेब कह गए हैं –

‘उज्ज्वल देखि न धीजिए बक ज्यों मांड़े ध्यान।

धीरे बैठ चपेटसी, यो ले बूड़ै ग्यान।।’

और कड़वे भाषण देनेवाले राजनेता सरीखे घाघ लोगों के लिए कह गए हैं –

‘हिदै कपट मुखि ग्यानी, झूठै कहा बिलोवसि पानी।

तूंबी अठसठि तीरथ नहाई, कड़ुवापन तऊ न जाई।।’

इसलिए सभी दलों के राजनेताओं और दलेतर सत्ताकामियों से भी निवेदन है कि कृपा करके कबीर जैसे संतों को बख्श दीजिए. उन्हें मत चपेटिए. क्योंकि जब वो उस दौर में सिकंदर लोदी जैसे शासकों के चपेटे में नहीं आए, तो किसी और के चपेटे में क्या आएंगे!हम राजनेता बाद में हैं. पहले इंसान हैं. इसलिए हम सभी सच्चे संतों को क्षुद्र राजनीति से ऊपर ही रखें. तभी हम सबको अपने-अपने कल्याण का सही और सच्चा मार्ग मिल पाएगा. वैसे संतों को तो कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन हमारे राजनेताओं को चाहिए कि वे इस पूरे प्रकरण के लिए प्रकट रूप से न सही, कम-से-कम मन-ही-मन भी अवश्य ही क्षमा याचना कर लें. कबीर न सही, हम सबके भीतर बैठा कबिराहा अर्थों वाला आत्माराम तो सब देखता-सुनता-समझता है न!

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*