खाप के खौफ से मुक्ति का पथ

खाप पंचायतों के संदर्भ में शीर्ष अदालत का मंगलवार को आया फैसला ऐतिहासिक महत्व रखता है। यह हमे बताता है कि हर बालिग को, चाहे वह महिला हो या पुरुष, अपनी मर्ज़ी से प्यार करने और शादी करने का मौलिक अधिकार है। इसमें परिवार, खानदान या समाज का कोई व्यक्ति दखल नहीं दे सकता। अब यह कोई छिपा तथ्य नहीं है कि खाप पंचायतें प्यार और शादी पर किस कदर पहरे बिठा देती हैं। हरियाणा के कैथल में 2007 में हुए मनोज-बबली हत्याकांड की पड़ताल के दौरान मैंने खुद यह महसूस किया था। बेशक ये पंचायतें तमाम तरह के सामाजिक काम करने के दावे करती हों, पर असलियत में ये अनाप-शनाप पाबंदियां और कायदे ही थोपती हैं। महिलाएं फोन का इस्तेमाल नहीं कर सकतीं, उन्हें जींस पहनने का कोई अधिकार नहीं, वे साइकिल नहीं चलाएंगी जैसे फरमान अक्सर सुनाई दे जाते हैं। यदि 21वीं सदी के भारत की कोई सामाजिक या जातिगत पंचायत इस तरह के फैसले करती हो, तो उसकी रूढ़िवादिता का अनुमान सहज लगाया जा सकता है।खाप पंचायतें सिर्फ और सिर्फ संपन्न व धनाढ्य किसान परिवारों के मर्दों का जमावड़ा होती हैं। इनमें किसी गरीब व्यक्ति और महिला को कोई स्थान नहीं मिलता। अमूमन जाति के नाम पर समाज में इस तरह की संस्थाएं बनाई जाती हैं, जो गरीबों व वंचितों पर अत्याचार करने के सिवाय कुछ और नहीं करतीं। सबसे खतरनाक तथ्य यह है कि ये पंचायतें अपने फैसले से देश के कानून की भी खुली अवहेलना करती हैं।

खाप पंचायत का खौफ मैंने खुद चार-पांच साल पहले अनुभव किया है। मुझे खबर मिली थी कि हरियाणा के गुरुग्राम के नजदीकी गांव का एक शादीशुदा प्रेमी जोड़ा भागकर दिल्ली आया है। लड़का दलित जाति का था और लड़की माली जाति की। स्थानीय खाप पंचायत इस अंतरजातीय शादी के खिलाफ थी, इसलिए उस जोड़े ने अपनी जान बचाने के लिए गांव छोड़ना ही मुनासिब समझा था। हम उसे लेकर हौजखास थाने गए। मगर खाप पंचायत के लोग रात भर उस थाने को घेरकर बैठे रहे। इतना ही नहीं, उस जोड़े को चुपके से वहां से निकालकर जब उनकी मौसी के यहां महरौली पहुंचाया गया, तो वहां भी उन लोगों ने घेरा डाल दिया। वे मारने-काटने की धमकी दे रहे थे। कल्पना कीजिए,जब राजधानी दिल्ली में ये लोग ऐसा व्यवहार कर सकते हैं, तो फिर अपने क्षेत्र में किस हद तक दबाव बनाते होंगे। निश्चित ही गांव में उस परिवार का रहना मुश्किल हो जाता होगा, जिसका बच्चा अपनी मर्ज़ी से अंतरजातीय प्रेम विवाह करता है। जबकि हमारा संविधान हर बालिग को अपनी पसंद से जीवनसाथी चुनने का हक देता है।इस तरह की संस्थाएं सिर्फ पितृसत्तात्मक समाज के हथियार हैं। इन्होंने हमेशा समाज में औरतों को दबाकर रखने का प्रयास किया है। आज भी वे बदलने को तैयार नहीं दिखतीं। कहीं ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता कि इन पंचायतों ने औरतों की शिक्षा, उनके स्वास्थ्य अथवा सामाजिक कुरीतियों को खत्म करने के लिए कोई ठोस प्रयास किया हो। बेशक एकाध अपवाद हैं, पर संपूर्णता में इन पंचायतों का चरित्र महिला-विरोधी ही है।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से तीन अच्छी बातें निकलती साफ-साफ दिख रही हैं। पहली, अब विवाह एक तरह से हमारा मौलिक अधिकार बन गया है। इसमें अभिभावक, समाज, गुट, समूह या किसी को भी दखल देने का कोई हक नहीं है। दूसरी बात यह कि पहली बार ऐसे मामलों में विवाहित जोड़ों की सुरक्षा की जिम्मेदारी स्थानीय पुसिस व प्रशासन पर डाली गई है। और तीसरी बात, प्रेमी जोड़ों व उनके परिवार वालों को सुरक्षित घर दिए जाने का निर्देश दिया गया है। तीसरा पक्ष कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि ऐसे प्रेमी जोड़ों के लिए कहीं भी रहना खतरे से खाली नहीं होता। शीर्ष अदालत ने उचित ही उनकी निगरानी का निर्देश स्थानीय पुलिस कप्तान व डीएम को दिया है। बेशक सुप्रीम कोर्ट ने अभी गाइडलाइन जारी की है और कानून बनाने का काम केंद्र सरकार करेगी, मगर शीर्ष अदालत का फैसला कानून के समान ही होता है। हमारे न्यायिक ढांचे की यही खासियत है कि संसद कानून बनाए अथवा नहीं, पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला कानून के तौर पर प्रभावी होता है।कुछ समाज विज्ञानियों ने आशंका जताई है कि ताजा फैसला जमीन पर लागू भी हो सकेगा! उदाहरण के तौर पर वे दहेज कानून का जिक्र करते हैं। उनका कहना है कि आज भी अपने देश में हर साल आठ से दस हजार लड़कियां दहेज के नाम पर मार दी जाती हैं। मगर ताजा फैसले का एक महत्वपूर्ण पहलू सुप्रीम कोर्ट द्वारा ऐसे मामलों की जिम्मेदारी तय करना है। अगर कोई प्रेमी जोड़ा खाप पंचायत का शिकार बनता है, तो स्थानीय प्रशासन इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाएगा। इसलिए यह उम्मीद कर सकते हैं कि पुलिस-प्रशासन अब संजीदगी से ऐसे मामलों में सक्रियता दिखाएगा।
एक उम्मीद हम सुप्रीम कोर्ट से भी पाल सकते हैं। संभव है कि आने वाले दिनों में शीर्ष अदालत एक कदम और आगे बढ़कर इस तरह की तमाम पंचायतों अथवा व्यवस्थाओं को असांविधानिक घोषित कर दे। अगर यह उम्मीद परवान चढ़ती है, तो फिर न तो ये पंचायतें बैठेंगी और न ही कोई उल-जुलूल फैसला हमारे सामने आएगा। सच भी यही है कि ये जमावड़े निजी स्वार्थ को पूरा करने के लिए किए जाते हैं। ऐसे दौर में, जब देश-दुनिया में महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिए जाने के प्रयास गंभीरता से हो रहे हों और सामाजिक बदलावों के जरिए औरतों का सम्मान सुनिश्चित किए जाने की संजीदा कोशिश हो रही हो, तब यह अनिवार्य ही है कि खाप पंचायतें जैसी संस्थाएं सांवधानिक रूप से अमान्य घोषित कर दी जाएं। तभी समाज और संस्कृति में लैंगिक समानता का प्रयास सफल हो सकेगा।

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