एक देश-एक चुनाव : विपक्षी सहमति बिना सरकार सिर्फ इंतज़ार कर सकती है

देश में लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा चुनाव कराने का सबसे बड़ा फैसला मोदी सरकार ले सकती है? क्या साल 2019 से पहले ही देश में लोकसभा चुनाव कराए जा सकते हैं ? ये सवाल इसलिए कौतूहल पैदा कर रहे हैं क्योंकि पीएम मोदी के बाद अब राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा चुनाव कराने पर जोर दिया है. दरअसल इस साल के आखिर में चार जगहों पर विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. वहीं अगले साल 2019 में लोकसभा चुनाव के अलावा 8 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. ऐसे में अब उस बहस को हवा मिलनी शुरू हो गई है कि दिसंबर में चार राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के साथ ही लोकसभा चुनाव भी कराए जा सकते हैं. बड़ा सवाल ये है कि केंद्र सरकार आखिर क्यों छह महीने पहले लोकसभा चुनाव के लिए तैयार होगी?  वहीं एक साथ चुनाव कराने के फैसले पर राजनीति दलों की सहमति की मुहर कैसे लग सकेगी?

दरअसल केंद्र और राज्यों के चुनाव एक साथ कराने की वकालत पीएम मोदी कई बार कर चुके हैं. उनका कहना है कि इन दो अलग अलग चुनावों की वजह से न सिर्फ चुनावी संसाधनों पर देश का पैसा काफी खर्च होता है बल्कि आचार संहिता की वजह से विकास कार्य भी रुक जाते हैं. अब यही भाव राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के अभिभाषण में दिखा है. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी लोकसभा और विधानसभा चुनाव एकसाथ कराने पर जोर दे रहे हैं. बजट सत्र के पहले दिन अपने पहले अभिभाषण में राष्ट्रपति ने कहा कि ‘देश में बार बार चुनाव होने से न केवल मानव संसाधनों पर अतिरिक्त भार पड़ता है बल्कि आचार संहिता लागू होने की वजह से देश के विकास में बाधा पहुंचती है.

राष्ट्रपति ने भी पीएम मोदी की बात को ही दोहराया है. वो भी ये मानते हैं कि चुनावी प्रक्रिया की वजह से विकास कार्य बाधित होते हैं और ऐसे में तमाम राजनीतिक दलों को एक साथ चुनाव कराने की दिशा में सहमति बनानी चाहिए. इससे पहले साल 2012 में बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी भी एक साथ चुनाव कराने की बात कह चुके थे.

इसी साल अप्रैल में कर्नाटक और नवंबर-दिसंबर में मिजोरम, मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में कयास लगाए जा सकते हैं कि शायद मोदी सरकार इसी साल दिसंबर में लोकसभा चुनाव का चौंकाने वाला ऐलान कर सकती है. साल 1952 से 1967 तक देश में एक साथ चुनाव हुए हैं. लेकिन समय के साथ जब राजनीति का स्वरूप बदलने लगा तो देश को कभी इमरजेंसी तो कभी मध्यावधि चुनाव तक देखना पड़ गया. कहीं एक ही दशक में देश ने पांच-पांच प्रधानमंत्री देखे तो कहीं पर राज्य सरकार को भंग कर राष्ट्रपति शासन तक लगाना पड़ा. बदलते राजनीतिक समीकरणों के चलते एक साथ चुनावों की बात ही इतिहास का हिस्सा बन कर रह गई. लेकिन अब पीएम मोदी और राष्ट्रपति कोविंद इस जरूरत पर फिर से जोर दे रहे हैं.

तकरीबन हर साल देश में चुनावों की दस्तक होती है. सरकारी खर्चों में बेतहाशा बढ़ोतरी होती है. इसकी बानगी साल 2014 का आम चुनाव है जिसमें तकरीबन 30 हजार करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है. देशहित में ये जरुरी है कि चुनावी खर्चों पर किसी तरह कमी लाई जाए. सरकारी मशीनरी और मानव संसाधन के समय की बर्बादी रोकने के लिए ‘एक देश-एक चुनाव’ सकारात्मक प्रयास है लेकिन इसके क्रियान्वयन में कई पेंच हैं.

नीति आयोग की मसौदा रिपोर्ट भी साल 2024 में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की वकालत कर रही है. स्टैंडिंग कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होने चाहिए. खुद चुनाव आयोग भी कह चुका है कि वो राजनीतिक दलों की सहमति के बाद इस पर अमल करने के लिए तैयार है. लेकिन एक देश-एक चुनाव के लिए संविधान में संशोधन करना होगा. दो-तिहाई बहुमत से ही संविधान में संशोधन हो सकेगा. ऐसे में राजनीतिक दलों की सहमति पहली बड़ी जरूरत होगी. लेकिन विपक्ष की दलील है कि देश में एक साथ चुनाव कराना व्यावहारिक नहीं है क्योंकि सरकार के पास सीमित संसाधन है. ऐसे में एक देश-एक चुनाव की नीति को लागू करने के लिए सभी राजनीतिक दलों की सहमति सबसे बड़ी चुनौती है. आखिर सहयोगी और विपक्षी दलों को इस बात के लिए राजी कैसे किया जा सकेगा?

साल 2004 में एनडीए के घटक दल टीडीपी ने लोकसभा चुनाव के साथ ही विधानसभा चुनाव का खामियाजा भुगता था. टीडीपी को राज्य की सत्ता से बाहर होना पड़ा था. मई-जून 2019 में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में विधानसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में टीडीपी नेता चंद्रबाबु नायडू या फिर टीआरएस नेता केसी राव इसके लिए कैसे तैयार होंगे. इसी तरह उड़ीसा को लेकर सवाल उठता है कि नवीन पटनायक एक साथ चुनाव के लिए कैसे राजी होंगे? पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी टीएमसी तो पहले ही इस प्रस्ताव को खारिज कर चुकी है.

वहीं तय समय से छह महीने पहले लोकसभा चुनाव कराने का फैसला भी व्यावहारिक नहीं लगता है. मोदी सरकार  चाहेगी कि वो ज्यादा से ज्यादा समय का इस्तेमाल कर जनता के बीच अपने कामों को दिखा सके. हालांकि मौजूदा राजनीतिक हालात मोदी सरकार के पक्ष में दिखाई दे रहे हैं. राज्य दर राज्य लगातार मिल रही जीत से बीजेपी के हौसले बुलंद हैं. गुजरात और हिमाचल प्रदेश की हालिया जीत मोदी लहर को साबित करती है. ऐसे में छह महीने पहले भी चुनाव मैदान में उतरने का दम मोदी सरकार दिखा सकती है. लेकिन विपक्ष फिलहाल एक साथ चुनाव कराने के मूड में नहीं दिखाई देता है. विपक्ष के पास साढ़े चार साल बाद भी ठोस मुद्दे का अभाव है जिसके जरिए वो मोदी सरकार पर आक्रमक रुख अपना सके.

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